सत्य की खोज में

Friday, August 31, 2012

मैं और मेरे माता-पिता


मेरे पोते के नामकरण संस्कार पर तैयार हुई वीडियो फिल्म को मैंने अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर देखा और सबने आनन्द लिया। लेकिन उसे देखते हुए कई बार मैं इतना भावुक हो गया कि मेरी आंखों से आँसू छलक आये। दरअसल उस वीडियो फिल्म को आकर्षक बनाने के लिए उसके निर्माता ने उसमें कई फिल्मी गाने डाल रखे थे। उनमें से तीन गाने ऐसे थे जो माँ-बाप और बच्चे की भावनाओं को प्रकट कर रहे थे कि माँ-बाप अपने बच्चे के पालन-पोषण के दौरान कितने कष्ट उठाते हैं और बच्चे से किस प्रकार की आशाएं करते हैं। उस समय मैं इस सोच में डूब गया कि मैंने अपने माता-पिता की आशाओं  पर कितना ध्यान दिया और उनको कितना पूरा किया।
वे फिल्मी गाने थे -


1. माँ की भावनाएं
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
जीती हूँ मैं, बस तुझे देखकर, इस टूटे दिल का सहारा है तू
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
तू खेले, खेल कई, मेरा खिलौना है तू - .....................
जिससे बंधी हर आशा मेरी, मेरा तो सपना सलोना है तू
नन्हा सा है, कितना सुन्दर है तू, छोटा सा है, कितना प्यारा है तू
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
मुन्ने तू, खुश है बड़ा, तेरे गुड्‌डे की शादी  है आज - .........................
मैं वारी रे, मैं बलिहारी रे, घूँघट में गुडिया को आती है लाज
यूँ ही कभी, होगी शादी तेरी, दुल्हा बनेगा कुँवारा है तू
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
पुरवायी बन में उड़े , पंक्षी चमन में उड़े  - .......................
राम करे, कभी होके बड़ा , तू बनके बादल गगन में उड़े    
जो भी तुझे, देखे वे ये कहे, किस माँ का ऐसा दुलारा है यह
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू।

2. पिता की भावनाएं
तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
मैं कब से तरस रहा था, मेरे आँगन में कोई खेले
नन्हीं सी हँसी के बदले, मेरी सारी दुनिया लेले
तेरे संग झूल रहा है, मेरी बाँहों में जग सारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
आज ऊँगली थाम के तेरी, तुझे मैं चलना सिखलांऊ
कल हाथ पकडना मेरा, जब मैं बूढा हो जाऊँ
तू मिला तो मैने पाया, जीने का नया सहारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
मेरे बाद भी इस दुनिया में, जिन्दा मेरा नाम रहेगा
जो भी तुझको देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा
तेरे रूप में मिल जायेगा, मुझको जीवन दोबारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा।


3. बच्चे की भावनाएं
तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी-प्यारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
ये जो दुनिया है, ये वन है काँटों का, तू फुलवारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
दुखने लागी हैं, माँ तेरी अंखियाँ, मेरे लिए जागी है तू सारी-सारी रतियाँ
मेरी निदियां पे, अपनी निदियां भी, तूने वारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
अपना नहीं तुझे, सुख-दुख कोई, मैं मुस्काया तू मुस्कायी
मैं रोया, तू रोयी, मेरे हँसने पे, मेरे रोने पे, तू बलिहारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
माँ बच्चों की, जां होती है, वो होते हैं किस्मत वाले जिनके माँ होती है,
कितनी सुन्दर है, कितनी शीतल है, न्यारी-न्यारी है,
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी-प्यारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ



इससे पहले भी कई बार इन गानों को सुन चुका हूँ। लेकिन कभी भी इनके बोल को इतनी गम्भीरता से नहीं सुना और न ही माँ-बाप का खयाल आया।
मेरे माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। वे दोनों मूलतः गांव वासी थे। मेरा जन्म भी एक गांव में हुआ था। मैं जब एक या दो वर्ष का था तो पिताजी ने एक कस्बे में जाकर व्यापार शुरू किया और मेरी पढ़ाई भी कस्बे में ही हुई। स्वयं शिक्षित न होने पर भी मेरे माता-पिता ने मेरा दाखिला स्कूल में कराया। अन्य अभिभावकों की तरह मुझे पढाना उनका मकसद था। कक्षा पांच उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने मेरा दाखिला कक्षा 6 में एक इण्टर कालेज में करा दिया। अगले वर्ष मैं कक्षा सात में पहुँचा तो एक परिचित की सलाह पर उन्होंने मुझे उस इन्टर कालेज से निकालकर एक जूनियर हाईस्कूल में डाल दिया। इसका कारण पिता जी ने मुझे उस समय बताया था कि चूंकि जूनियर हाईस्कूल में कक्षा आठ की परीक्षा बोर्ड की होती है इसलिए तुझे बोर्ड की परीक्षा पास करने का अनुभव हो जायेगा जो फिर इन्टर कालेज में कक्षा दस की बोर्ड परीक्षा में काम आएगा।
कक्षा सात तक मैं पढाई में साधारण था। न कभी फेल हुआ, न कभी फर्स्ट आया। जूनियर हाईस्कूल में दाखिला लिया तो वहां भी अन्य छात्रों के मुकाबले में साधारण ही था। उस स्कूल के प्रधानाध्यपक रात में अपने घर पर छात्रों को स्वयं पढ़ाते थे। एक-एक छात्र पर ध्यान देते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरे अन्दर इतना निखार आ गया कि मैं कक्षा आठ की बोर्ड की परीक्षा में न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ बल्कि स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया और जनपद की मेरिट लिस्ट में भी स्थान पाया।
इसके बाद फिर एक इन्टर कालिज में दाखिला करा दिया गया। यहाँ भी हाईस्कूल की यू.पी. बोर्ड परीक्षा प्रथम श्रेणी में तीन विषयों में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की और गणित में तो 100 में से 97 अंक प्राप्त किये।


जब मैं कक्षा दस में था तो पिताजी दूर एक गांव में जाकर व्यापार करने लगे और मैं आगे की पढ़ाई के लिए इसी कस्बे में रह गया। ट्यूशन करके आगे की पढाई  शुरू की और मैं जल्दी ही पढाई  के साथ नौकरी करने लगा। कुछ समय बाद मेरी शादी पास के शहर में एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की से हो गयी। वह एक बड़ी  फैक्ट्री में सम्मानजनक पद पर नौकरी करती थी। मैंने भी उसी शहर में जाकर नौकरी शुरू कर दी। कहने के लिए मैं शहरी  बन गया। लेकिन मेरा रहन-सहन, चाल-ढाल आज तक शहरी न बन सका।
इस प्रकार मैं अपने माता-पिता से अलग रहने लगा। कभी मैं उनके पास मेहमान की तरह जाता और कभी वे मेहमान की तरह मेरे पास आते।
मैंने अपने माता-पिता को कभी भी किसी भी बात के लिये दोष नहीं दिया लेकिन मुझे उनके प्रति कभी लगाव महसूस नहीं हुआ। इसका कारण समझ में नहीं आता। जबकि मेरा गाँव व कस्बे के वातावरण में लालन-पालन हुआ है। जहाँ बच्चों में माता-पिता के प्रति काफी श्रद्धा रहती है। इसी प्रकार के संस्कार भी मिले हैं। मैंने श्रवण कुमार की वह कहानी भी पढ़ी है जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर पर लेकर पैदल तीर्थाटन कराता है। मैंने रामायण भी सुनी है। जिसमें राम अपनी माता कैकेयी की इच्छा का पालन करते हुए अपना राजतिलक न कराकर 14 वर्ष का वनवास भोगते हैं।


उन्होंने मेरी शिक्षा व नौकरी की कोई योजना नहीं बनायी क्योंकि उन्हें खुद इन बातों की समझ नहीं थी। उन्होंने मुझे कोई विशेष सुख-सुविधा नहीं दी क्योंकि वे खुद अपनी आर्थिक स्थिति को कभी नहीं सुधार पाये। शायद  इन्हीं कारणों से मेरा उनके प्रति लगाव नहीं बन पाया हो और मैंने कभी उनकी भावनाओं को नहीं समझा हो। हालांकि मुझे इसका कभी कोई दुख नहीं हुआ कि मेरी इन्जीनियरिंग या मेडिकल जैसी कोई प्रोफेशनल शिक्षा क्यों नहीं हुई और कोई प्रोफेशनल डिग्री ली होती तो कोई बड़ी नौकरी मिल जाती। मैं जब हाईस्कूल (विज्ञान वर्ग) में था तो विज्ञान या गणित की पुस्तकों को देखकर सोचता था कि मैं बड़ा होकर शिक्षक बनूं और पुस्तकें लिखूं। कुछ बड़ा हुआ तो वैज्ञानिक बनने की इच्छा होने लगी। इसके बाद तो इच्छायें अनगिनत हो गयीं। इनमें से कुछ पूरी हुईं, कुछ पूरी नहीं हुईं। काफी समय से एक इच्छा बहुत प्रबल है कि अपने को जानूं कि मैं क्या हूँ? क्या कर सकता हूँ? और क्या करना चाहिए।

जब इस वीडियों के गानों को सुना तो न मालूम क्यों इतनी आत्मग्लानि हुई। महसूस होने लगा जैसे उनकी परवाह न करके मैंने कोई बड़ा अपराध किया हो। मन में विचार उठने लगे कि भले ही वे मुझे इतना न दे पाये हों जितना देना चाहिए। लेकिन उनकी वजह से मैंने इस दुनिया में आंखें खोली और आज भी शरीर से तथा दिल-दिमाग से स्वस्थ हूँ। जो मन में आ रहा है वह कर रहा हूँ। इस दुनिया को देख पाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।

मैं सोच रहा हूँ कि यदि वे जुआरी, शराबी आदि होते तो मेरा जीवन कैसा होता। उनमें यदि दुनिया की समझदारी नहीं थी तो उनमें दुनिया का कोई एैब भी तो नहीं था। क्या मुझे इसका लाभ नहीं मिला। जब मैं छोटा था तो क्या समझदार और सम्पन्न माता-पिताओं की तरह ही उन्होंने मेरा ध्यान नहीं रखा। पिता व बाबा के अनुभवों से गुजरने के बाद यह कहा जा सकता है कि माँ-बाप गरीब हों अथवा अमीर, साधारण हो अथवा असाधारण सभी अपने बच्चों की परवरिश  में अपने स्तर से कोई कमी नहीं करते हैं। खुद भूखे सो जायेंगे मगर बच्चों को भूखा नहीं सोने देंगे। खुद के तन पर कपड़े कैसे भी हों मगर बच्चों को अच्छे से अच्छा पहनाएंगे। खुद चाहे कभी स्कूल न गये हों मगर बच्चों को भरपूर पढ़ाएंगे । बच्चे को जरा सी तकलीफ हुई कि माँ-बाप की नींद उड  जाती है। उसके लिए बड़ी से बड़ी चीज कुर्बान कर देते हैं। इतने पर भी यदि कोई बच्चा बड़ा होकर यह कहे कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया है। मैं तो सेल्फमेड हूँ। मेरे विकास में मेरे माता-पिता का कोई योगदान नहीं है, मैं जो कुछ हूँ अपनी बुद्धि व मेहनत के बल पर हूँ। तो यह उसकी कृतध्नता ही होगी।

सभ्य व्यक्ति उसे माना जाता है जिसे यदि कोई व्यक्ति थोड़ी  सी भी मदद करता है तो वह उसका शुक्रगुजार  हो। न केवल शब्दों में शुक्रिया व्यक्त करे बल्कि समय आने पर वह भी उसकी मदद के लिए तत्पर रहे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति को अपने माता-पिता का कितना शुक्रगुजार  होना चाहिए।

मुझे इस समय एक मित्र याद आ रहा है। वह मित्र अपने माता-पिता को ईश्वर से भी ज्यादा मानता है। उसका मानना है कि ईश्वर को तो उसने देखा नहीं है, माता-पिता को तो उसने साक्षात्‌ देखा है। माता-पिता अपने बच्चे की भलाई के लिए जितना करते हैं, उतना कोई नहीं कर सकता। वह मित्र कुछ भी खाने से पहले अपने माता-पिता को उसी प्रकार खिलाता है जैसे कोई भक्त अपने भगवान को भोग लगाकर कुछ खाता है। वह मित्र अपने लिए कोई भी कपड़ा खरीदने से पहले अपने माता-पिता के लिए खरीदता है।
अपने माता-पिता के प्रति शुक्रगुजार  होने की यह शायद चरम सीमा है।

14 comments:

  1. Sir! this is an impeccable piece of work. The best part is that it could be felt that each inscribed word comes from heart without any brain manipulation and touches the heart of the reader and even prompts him for soul searching.
    It gives a real feeling that how selfish and self centered we have turned even towards those for whom we have our identity and existence. Rather than complaining of what we lacked we should be grateful of what we have. Paying back for all is not worthy because even serving them for life would not yield the interest of the principal value. The motto should be to bring a smile on their faces and tears of joy with the feeling inside them of contentment of having you as their offspring. Once again, great job…keep posting….!

    Anirudha

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  2. आदरणीय अनंत जी, आपने अपनी अंतरात्मा की बातें बयान कर न जाने कितनों की ऑंखें खोल दी! सचमुच आप और आपके माता पिता महान हैं. मैं इश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आपके बच्चों में भी यही संस्कार और भावनाएं हों. अगर हम सभी अपने माता पिता का आदर करें उनकी अशक्त गाडी में सेवा करें तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाय! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति - jl.singh@yahoo.co.in


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  3. ir! this is an impeccable piece of work. The best part is that it could be felt that each inscribed word comes from heart without any brain manipulation and touches the heart of the reader and even prompts him for soul searching.
    It gives a real feeling that how selfish and self centered we have turned even towards those for whom we have our identity and existence. Rather than complaining of what we lacked we should be grateful of what we have. Paying back for all is not worthy because even serving them for life would not yield the interest of the principal value. The motto should be to bring a smile on their faces and tears of joy with the feeling inside them of contentment of having you as their offspring. Once again, great job…keep posting….!Anonymous noreply-comment@blogger.com

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  4. आदरणीय अनंत जी सादर अभिवादन,
    यह एक दुखद सच है कि आज के युवा वर्ग का एक बहुत ही बड़ा भाग अपने माता-पिता की भावनाओं को नहीं समझता है! उसे अपनी गलतियाँ याद नहीं रहती, न ही अपने माता पिता के साथ किया गया दुर्व्यवहार याद रहता है! वो भूल जाता है कि जिन माता- पिता को आज वो थोडा सा सम्मान तक देना उचित नहीं समझता, जिनके पास दो घडी बैठने या उनके कुछ क्षण उनके पैरों को दबाने के लिए उसके पास वक़्त नहीं है, यह उसके वही माता पिता ह�¥
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    जिन्कोने उसके लालन- पालन के लिए अपना हर सुख अपनी हर ख़ुशी उसकी तमाम उचित अनुचित मांगों को पूरा करने के लिए न्योछावर कर दिया, और बदले में वो अपने माता- पिता को सम्मान तक का अधिकारी नहीं मानता है! लेकिन यह भी सच है कि जब वो खुद पिता बनता है तो उसे पिता के कर्तव्यों का बोध होता है, और वो अपनी संतान से वो सब अपेक्षाएं करता है जिन पर वो अपने माता-पिता के प्रति कभी खरा नहीं उतर सका!
    अनंत जी वैसे तो मैं अपने माता पिता के साथ ही रहता हूँ, और अपने माता-पिता की आँखों का तारा भी हूँ, मगर सच कहूँ तो आपकी रचना को पढने के बाद से मैं अपने माता पिता को अपने और भी करीब महसूस कर रहा हूँ!
    आपके लिखे इस अनुपम और माता पिता के असीम, निछल प्रेम को व्यक्त करते लेख के लिए मेरी और हार्दिक बधाई!Madhur Bhardwaj -bhardwaj.jagran@gmail.com

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  5. u made me realize the truth that we dont even think about..
    thank you anant anveshi ji
    i just want you to keep showing us the right path and teach us from your experiences

    harsh gupta

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  6. thank you for making me realize the truth that we dont even about. i just want u to keep showing us the right path in life n teach us from your experiences

    harsh gupta

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  7. u made me realize the truth that we dont even think about..
    thank you anant anveshi ji
    i just want you to keep showing us the right path and teach us from your experiences

    harsh gupta - comment-blogger.com

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  8. आपकी भावनाओं का हम सभी आदर करते हैं माता-पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता.यह ब्लॉग बहुत ही सुन्दर है Yamunapathak ji

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  9. आदरणीय अनंत जी ,ईश्वर ने अपने रूप में माता पिता को इस दुनिया में भेजा है ,जिसने अपने माँ बाप की सेवा कर ली उसने ईश्वर को पा लिया ,अति सुंदर आलेख पर हार्दिक बधाई -rekhafbd

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  10. Respected ananth sir, ur article really touches every heart as it is the story of each one.

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  11. mujhe nahi maloom mujhe apne mata pita se kitna lagao hai..........bus itna maloom hai wo nahi hote to mera astitwa bhi nahi hota ....... selfmade aur engineer hona to bahut door ki baat hai

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  12. dear sir, your article are awesome .but it's not a article its a lesson for everyone specially young generation........

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  13. Great sir..
    When we are happy we enjoy music..but sometime when we are sad we understand the lyrics...this article for all youth to learn and try to understand and respect their parents.

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  14. Dear Sir,
    Very important and precious thoughts and emotions expressed in a very simple and effective manner. Hope all of us strive to fulfill our parent's wishes and respect them always.

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